एक दिन की बात है। शाम ढ़ल रही थी और मैं सड़क से गुज़र रहा था। मैं किसी बात की वज़ह से थोड़ा उदास था। तभी किसी की सामने से आवाज़ सुनाई पड़ी "...
एक दिन की बात है। शाम ढ़ल रही थी और मैं सड़क से गुज़र रहा था। मैं किसी बात की वज़ह से थोड़ा उदास था। तभी किसी की सामने से आवाज़ सुनाई पड़ी "गुब्बारे ले लो"।
मैंने सामने देखा। एक परी सी सुन्दर एक लड़की खड़ी है। उसके हाथ में कई गुब्बारे थे। जो हवा में उड़ रहे थे।
मैं उसे देख रहा था, बहुत ग़ौर से देख रहा था। उसका छलकता यौवन अभी ज़वानी की दहलीज़ पर पहला कदम ही रखा था शायद। पर उसके मासूम चेहरा भी उदास दिख रहा था।
मैं उसे देखे ही जा रहा था कि फिर उसने आवाज़ दिया- "गुब्बारे ले लो"।
मैं ख़्यालों से बाहर आया और मैंने कहा - नहीं, मुझे गुब्बारे की ज़रूरत नहीं है। नहीं चाहिए मुझे"।
उसने कहा "अपनी ज़रूरत के लिए जो जीता है, उसको जीना थोड़े कहते हैं, कभी दूसरों के लिए भी जी कर देखो, ज़िन्दगी जीने का मज़ा और बढ़ जाएगा"।
उसके सुर्ख होठों से ऐसे शब्द और सोच सुनकर मैं हैरान था। मैं क्या बोलूं? कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी उसने कहा "अब तो ले लो गुब्बारे"।
मैंने कहा- देखो , मुझे गुब्बारे की ज़रूरत नहीं है। अगर तुम्हें पैसे चाहिए तो ले लो।
और मैं उसे पैसे निकालकर देने लगा। उसने मुझे रोकते हुए कहा- नहीं साहब, इतनी भी बेग़ैरत नहीं मैं, जो आपसे यूं ही पैसे ले लूँ। अगर आप गुब्बारे ले लेंगे तो मेरे दिल को सुकून मिलेगा कि मैं गुब्बारे बेचकर पैसे कमाई हूँ।
मैंने कहा- लेकिन मैं इन गुब्बारों का करूँगा क्या? मेरे घर में तो कोई बच्चे भी नहीं हैं, जिन्हें दे दूं तो इससे उनका दिल बहल जाए।
उसने मुस्कुराते हुए कहा- "साहब, क्या पता इन गुब्बारों से शायद आपका दिल बहल जाए। आपके उदास चेहरे पर मुस्कान आ जाये"।
और उसने हवा में उड़ते हुए एक गुब्बारे को मेरे हाथों में थमा दिया और वहाँ से मुस्कुराते हुए जाने लगी।
मैं कभी उसको जाते हुए देख रहा था तो कभी अपने हाथ के उड़ते हुए गुब्बारे को।
वो उड़ता हुआ गुब्बारा जैसे मुस्कुराते हुए बोल रहा था- "शायद आपका दिल बहल जाए"
और सचमुच मैं मुस्कुरा उठा।
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