चैत (Chaita) का महीना ( Chaitra Month ) आते ही लहलहाती हुई फसलें लसलसाने लगती हैं। खेतों ( Village Field ) की झूमती बालियां रात की जोश भरी ...
चैत (Chaita) का महीना (Chaitra Month) आते ही लहलहाती हुई फसलें लसलसाने लगती हैं। खेतों (Village Field) की झूमती बालियां रात की जोश भरी बारात की तरह सुबह सुस्ती और आलस भरी अंगड़ाई की तरह आँखें झपकाने लगती हैं। हरियाली सूखने लगती है और तब फसलों को दी जाती है खलिहान (Khalihan) में जगह। हाँ, हाँ, वही खलिहान (Khet Khalihan).जिनसे है गाँव की एक अलग पहचान।
हालांकि यह सच है कि अब के भागमभाग की दौड़ में खलिहान का जमाना गांवों (Khalihan in village) से दूर होता जा रहा है। अब तो एक ही दिन में कटाई, कुटाई, बनाई...सब कुछ इतना तेज कि कुछ पता ही नहीं चलता है।
पर इन सन बातों से आपको याद तो आ ही गया होगा खेत खलिहान (Barn) का बीते दौर का जमाना! खेत की घास हटाकर सफाई करना और फिर उसकी लिपाई करना। इसके बाद वो ठुक-ठुक चलती छोटी सी मशीन और वो ठक-ठक चलता छोटा सा थ्रेशर (Thresher).कई दिनों तक खलिहान (Thresher in barn) से एक लय में आवाज़ सुनाई देती थी।
यह वास्तविकता से बिल्कुल भी परे नहीं कि छोटी मशीन (Machine) और छोटे थ्रेशर के दौर में बोझों का अम्बार रहता था। पर आज वक़्त कुछ और है।
किसी के पास समय नहीं। किसी के पास इतना वक़्त नहीं कि कई दिनों तक थ्रेशर और मशीनों पर अपना समय दें। आज तो बस पल भर में सब कुछ समाप्त। इतनी बड़ी-बड़ी मशीनें और यंत्र आ गए हैं कि सब कुछ आसानी से बहुत जल्दी खत्म हो जा रहा है।
दोस्तों! सच पूछिए तो मज़ा तो उसी बीते दौर में आता था, जिस दौर में खेत और खलिहानों से खुशबू (Mere desh ki dharti)आती थी अपनी मिट्टी की। अच्छा तो तब लगता था, जब चांदनी रात में चमकते आसमान के नीचे बोझों की कटाई चलती थी और हम सब बिंदास, बेधड़क मस्ती करते थे।
पर अब तो शायद खेत और खलिहान उदास हैं, जिनकी वज़ह से हमारी पहचान उदास हैं। शायद एक ओर हम बड़े हो गए, तो दूसरी ओर कुछ लम्हे भी वक़्त की साख में बुड्ढे हो गए।
पर आज भी यही खेत और खलिहान ही हमारी पहचान हैं। यहाँ की मिट्टी आज भी हमारा नाम पुकारती है। आज भी खेतों की कटी हुई फसलें हमें बुलाती हैं। आज भी अन्न और अनाज हमें देखकर मुस्कुराते हैं और आज भी हमारे गाँव की हमारी हर पहचान हमारी पहचान से हमारी रु-ब-रु कराती हैं।
बेशक, मैं कई वर्षों से शहर में हूँ, पर आज भी मेरा सबसे ज़्यादा वास्ता जुड़ा है तो इन्हीं खेत खलिहानों से, इन्हीं पुराने पड़े मकानों से, इन्हीं मैदानों से, इन्हीं पगडंडियों से।
शायद हम बीते दौर के खलिहान को बहुत पीछे छोड़ते जा रहे हैं और भूलते जा रहे हैं, पर यकीनन इस दौर को जब भी हम याद करेंगे या अपने आने वाली जेनरेशन से हम इसकी चर्चा करेंगे तो हमें यही लगेगा हमने एक सुनहरा युग खो दिया है।
खैर! वक़्त का काम है भागना, हमारा भी काम है आगे बढ़ते जाना। पर हाँ, अपनी यादों को भी संजोये रखना, यह भी हमारी ही जिम्मेदारी है। जैसे कि मैं अपनी यादों को कैद करके रखता हूँ अपने ब्लॉग silsila zindagi ka में।
दोस्तों! कैसा लगा मेरा यह पोस्ट? कमेंट्स में जरूर बताईये। जल्दी ही मिलता हूँ आपसे एक नए विषय के साथ। जुड़े रहिये और पढ़ते रहिये "सिलसिला ज़िन्दगी का"।
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