उसी हौसले और उसी जूनून को ढूँढ रहा हूँ, उसी जज़्बात को ढूँढ रहा हूँ, जिससे मेरी ज़िंदगी मुकम्मल हुआ करती थी. अब कही गुम सा हो गया हूँ, कहीं ...
उसी हौसले और उसी जूनून को ढूँढ रहा हूँ, उसी जज़्बात को ढूँढ रहा हूँ, जिससे मेरी ज़िंदगी मुकम्मल हुआ करती थी. अब कही गुम सा हो गया हूँ, कहीं खो सा गया हूँ. शायद वक़्त और हालात ने सब कुछ बदल दिए हैं. मेरी, चाहतें, मेरी ख़्वाहिशें, मेरी फ़रामाइशें, मेरे वज़ूद...! सब, ना जाने सब कहाँ खो गए हैं?
मैं दूर कहीं खड़ा अपने आपको भीड़ में ढूँढ रहा हूँ, तन्हाई में भी खुद से अपना पता पूछ रहा हूँ. नदियों, हवाओं, पर्वतों से सही रास्ता पूछ रहा हूँ. सोच रहा हूँ, क्या मैं वही हूँ, जो था, जो हुआ करता था. मैं, मैं पूरा, हाँ सचमुच पूरा.
याद है मुझे, बरसात का मौसम था. पटना की एक ट्रेन में एक छोटा सा बैग लेकर चल पडा था. एक अनवरत यात्रा पर, एक खोज के लिए, एक तलाश के लिए. शुरुआत तो बहुत अच्छी हुयी थी, लेकिन कहते हैं ना की शहर की चकाचौंध में इंसान कही गुम सा होता चला जाता है. जैसे मैं! हर सुबह एक नई उम्मीद के साथ शुरुआत तो जरुर होती थी , पर ज़िंदगी और वास्तविकता से मुलाक़ात हर रोज़ अधूरी रह जाती थी.
हर शाम भागते शहर की शोर में मेरी ख्वाहिशों की आवाज़ें दबती जा रही थी. सिकन थी, मजबूरियाँ थी और गुज़रते लम्हों के साथ कई कसक. जहाँ मैं रुकता जा रहा था, वक़्त तेजी से गुज़रता जा रहा था.
एक शाम, मैं और मेरी तन्हाई बाते कर रहे थें. ज़िंदगी के बारे में, ज़िंदगी की खुशियों के बारे में...लेकिन लैब उदास था. दिल में बेचैनी और चेहरे पर दर्द की कई लकीरें थीं. जज़्बात पिघलते जा रहे थे, वक़्त की रफ़्तार अब मानो थमती जा रही थी. भागते हुए कदम रुकते जा रहे थे. हालात में अब वह बात नहीं रही थी. ज़िंदगी और मेरे बीच थोड़ा फासला बढ़ने लगा था. जैसे अब एक नया युग शुरू हो गया है और इस नए युग के साथ सबकी ज़िंदगी में बिखराव आने लगा हो.
इस बिखराव से मेरी भी ज़िंदगी अछूती नहीं रही. मैं भी इन लम्हों की कसक के बीच फंसता गया और पीसता गया. बदलते मंज़र और मौसम को देख रहा था. सूरज समय से तो निकल रहा था, पर रोशनी में पहले वाली बात नहीं थी. चाँद चमक तो रहा था, पर चांदनी में वह बात नहीं थी. सितारे दिख तो रहे थे, पर उनकी झलक में वह बात नहीं थी.
कुछ तो हो गया था और कुछ होने जा रहा था. रफ्ता-रफ्ता चलते वक़्त की दूर वादियों सी आह की आवाज़ आ रही थी. ज़माना कराह रहा था, फलक आंसू बहा रहे थे, ज़मीं रो रही थी. सब कुछ उदास, ना जाने क्या हो गया...? यह कैसे हो गया...? यह क़यामत कौन लेकर आया...? हज़ारों सवाल थे, पर ज़वाब एक भी नहीं.
गाँव की पगडंडियाँ अच्छी लगने लगी थीं. मुझे ही नहीं, उन सबको जो कहते थे शहर के बिना मैं जी ही नहीं सकता हूँ. कारवाँ लौट रहा था. सबको गाँव पहुँच जाना था. पर मैं गाँव में था. किसी बगीचे में चारपाई पर लेते हुए ब्रेकिंग न्यूज पढ़ रहा था, तू कभी अपना मोबाइल उठाकर कैमरा से विडियो शूट कर रहा था. मुझे भी शहर की आदत थी, शहर में रहने का शौक़ था, शहर के बिना ना जीने की तमन्ना थी...पर अब तो गाँव अच्छा लगने लगा था.
बबूल के काँटों का पैरों में चुभ जाना, बेर के पत्तों का शरीर पर गिर जाना...सब अच्छा लग रहा था। खेत और खलिहान में नंगे पांव चल देना, बिना अच्छे कपड़ों की परवाह किए घर से बाहर निकल लेना...सब अच्छा लग रहा था।
और तभी बरसात का मौसम अपना शबाब दिखाने लगा था। दुनिया पटरी पर लौट रही थी। ट्रेन की छुक छुक में फिर से संगीत की स्वरध्वनियां सुनाई देने लगी थीं। गांव आए लोग अब शहर लौटने लगे थे।
देखते-देखते मैं भी इंडिगो फ्लाइट में बैठ चुका था। और आवाज़ सुनाई देती है- पटना से मुंबई की दूरी हम 2 घंटे 25 मिनट्स में पूरी करेंगे।
आसमान में बादलों के बीच कई यात्रियों के बीच विंडो सीट पर मैं तन्हा सोच में बैठा हुआ था। कहां जा रहा हूं मैं...? जहां जा रहा हूं मैं? जहां जा रहा हूं वहां जाने का मकसद क्या है? वहां कौन है मेरा? क्या करना है मुझे?
हजारों सवालों का बोझ लिए उलझन में पड़ा था- अब हम लैंड के लिए तैयार हैं, अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें। हाथ कुर्सी की पेटी पर गया और नज़रें बाहर।
सपनों की नगरी मुंबई की सरजमीं पर फ्लाइट उतर चुकी थी। चेहरे पर खुशी और उदासी दोनों। खुशी इसलिए की अब मैं वहां पहुंच गया, जिस शहर ने मुझे जीने की कई वजहें दिया था...और ग़म इसलिए की जाने मेरा शहर क्यों मुझसे बेगाना लग रहा था?
मुंबई एयरपोर्ट से बाहर निकला और एक चाय पीने के साथ सीधे निकल पड़ा नायगांव।
शूटिंग चल रही थी। दो चेहरे जाने-पहचाने और बाकी सब बेगाने। दोस्ती बढ़ रही थी, पहचान बढ़ रही थी...फिर भी कुछ अधूरा सा लग रहा था।
15 दिनों की शूटिंग और थकान के बाद कुछ दिन मुंबई में। पर वो लोग नहीं दिख रहे थे जिनकी मैं तलाश कर रहा था या वो जिन्होंने मुझे तलाश किया था।
कुछ लोगों पर फोन किया तो किसी का नंबर बंद आया और किसी ने फोन उठाया तो आवाज़ आई मैंने फिल्म इंडस्ट्री छोड़ दिया है और अपने शहर आ गया हूं।
मैं स्तब्ध! आवाक! परेशान! पर कुछ नहीं! यकीन करना पड़ा की सब चले गए। इस दौरान काम के लिए फोन आते रहे।
कुछ काम लिया और मैं फिर मुंबई से पटना के लिए उड़ान भर रहा था। और देखते-देखते फिर से पहुंच गया था अपने गांव। गांव को देखते ही चेहरे पर वही मुस्कान, वही उमंग, वही रंग।
पर जज़्बात थोड़े बिखरे-बिखरे से। मन बोझिल सा। क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था जब मैं मुंबई से आया था और मेरी खुशियां आधी हो गई थीं। लेकिन गांव ने फिर से जैसे मुझमें जान भर दिया।
इसके बाद कई बार मुंबई आना-जाना लगा रहा। काम करता था और खत्म होते ही फिर लौट आता था। पर दिल से वही सवाल बार-बार .... मैं कहां खो गया हूं? मैं क्या से क्या हो गया हूं? मुझे क्या हो गया है?
लंबे समय तक फिर से गांव में रहा। कुछ विडियोज बनाता रहा। ब्लॉगिंग करता रहा। पैसे कमाता रहा। पर दिल में कुछ अधूरा सा लग रहा था। अपनों के बीच, अपनापन के संग।
यात्राएं भी बखूबी ज़ारी रहीं। उत्तरप्रदेश की सड़कों, गलियों और हाईवे से मेरा कारवां गुज़रता रहा। ज़िंदगी पटरी पर थी। खुशियों का संगम था। पर दिल में वही कसक - मुंबई कब जाना होगा?
और आखिरकार पहुंच गया हूं मुंबई। अपने सपनों को पूरा करने। अपनी ख्वाहिशों को उड़ान देने। वही अरमां, वही चाहतें और उन्हीं जज्बातों के संग।
मुंबई! मुझे तुझे मोहब्बत है।
हां! बेपनाह मोहब्बत!
इस बार कुछ ऐसा होगा, जैसा पहले कभी हुआ नहीं। शुरू हो चुकी है ज़िंदगी की एक नई कहानी। संघर्ष का एक नया किस्सा।
कुछ बड़ा होने जा रहा है। कुछ नया। कुछ बेमिसाल। कुछ मुकम्मल। उगते सूरज के साथ उम्मीदें रात को सपने के रूप में फिर से आने लगी है। अब एक क्या फंसना होगा। एक नया तराना होगा।
"सिलसिला ज़िंदगी का" अब एक नए सिरे शुरू हो चुका है। अगले पोस्ट तक इसकी रफ्तार थोड़ी बढ़ जायेगी और तब मिलूंगा, आपसे फिर ने हालात, नई कहानी और नए रंग के संग। दीजिए इजाज़त! नमस्कार!
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