ख्वाहिशें रेत की तरह मुट्ठी से फिसल रही हैं रोज़ दिल से कई दर्द भरी आहें निकल रही हैं इसको आग़ाज़ कहूँ या अंज़ाम समझ नहीं आता ना निशाना ...
ख्वाहिशें रेत की तरह मुट्ठी से फिसल रही हैं
रोज़ दिल से कई दर्द भरी आहें निकल रही हैं
इसको आग़ाज़ कहूँ या अंज़ाम समझ नहीं आता
ना निशाना बदल रहा है ना निगाहें बदल रही हैं
कर दे बेरंगत मेरा हर वज़ूद
या फिर कोई नया ख़्वाब भर दे
थक गया हूँ ज़िन्दगी
अब तो मेरा हिसाब कर दे ।
चलता हूँ रस्तों पे पूछता हूँ सफ़र कहां है
रहता हूँ आशियाँ में पूछता हूँ घर कहां है
ना वो महफिलें-शाम ना वो रौनके सुबह है
मिलता था सुकूं जिसमें वो पहर कहां है
जकड़ा हूँ वर्षों से ग़ुलामी की जंजीरों में
अब तो मुझे आज़ाद कर दे
थक गया हूँ ज़िन्दगी
अब तो मेरा हिसाब कर दे।
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