My First Love/ग़ज़ल ही मेरी पहली महबूबा थी जब भी कोई मुझसे पूछता है, Who was your first Love? और मैं मुस्कुराते हुए कहता हूँ- My First Lov...
My First Love/ग़ज़ल ही मेरी पहली महबूबा थी
जब भी कोई मुझसे पूछता है, Who was your first Love? और मैं मुस्कुराते हुए कहता हूँ- My First Love/ग़ज़ल ही मेरी पहली महबूबा थी। और अब भी कह रहा हूँ, My First Love/ग़ज़ल ही मेरी पहली महबूबा थी।
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ज़िन्दगी के कैनवास पर थिरकतें ख़्वाब |
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और आज ग़ज़ल की याद इसलिए आई है क्योंकि आज सुबह एक मेरे बिछड़े हुए दोस्त का फोन आया। बातचीत के दौरान ही उन्होंने मुझसे पूछ डाला- "अनिल, कुछ नया ग़ज़ल लिखे हो या लिखना छोड़ दिये?" और उन्होंने 5 सालों पहले लिखी मेरी एक ग़ज़ल की चंद पंक्तियाँ सुना डाली। और बोले महफिलों में मैं हमेशा सुनाता हूँ सबको इसे और तुम्हारी याद आ जाती है। जो ग़ज़ल उन्होंने सुनाया उसे मैं भूल चुका था, आज याद आ गया।
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मुस्कुराते रहना हमेशा ताउम्र मेरे यारों,
तुम्हारे पास अपना भी इब्तिसाम छोड़ कर आया हूँ।
वो सुबह की रौनक रात की तन्हाई,
और महफिलों की सुनहरी शाम छोड़ कर आया हूँ।
ज़माने के कारवाँ में भले ना नज़र आऊं,
पर तुम्हारे दिल में मैं अपना नाम छोड़ कर आया हूँ।
मेरे पैरों के निशां भले ना नज़र आये कहीं,
जब मेरे दोस्त ने मुझे यह ग़ज़ल सुनाई तो बहुत खुशी हुई, लेकिन थोड़ा दुख भी हो। सोचने लगा क्या दौर था? वो मेरी ग़ज़लें, मेरी कविताएं मुझे आज भी बुलाती हैं। लेकिन इन्हें क्या पता, वो दौर कुछ और था, अब दौर कुछ और है।
बहुत प्यार था ग़ज़लों और कविताओं से मुझे। और शायद इन्हें भी। यूँ ही चंद समय में ही ग़ज़ल लिख दिया करता था। जब भी किसी महफ़िल में बैठता था, उस दिन की वो महफ़िल मेरे नाम होती थी। लोग तालियां बजाते नहीं थकते थें।
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बहुत छोटी उम्र से ही ग़ज़लों और कविताओं से मेरा वास्ता जुड़ गया था, या यूं कहिए कि इनकी लत सी लग गई थी। जिस उम्र में लोग गणित का सवाल ठीक से हल नहीं कर पाते थे, उस समय मैं अल्फ़ाज़ों को जोड़कर कुछ यूं पंक्तियाँ बनाता था कि लोग दीवाने हो जाते थे। (और मैं भी गणित का सवाल हल नहीं कर पाता था, शायद इसीलिये ग़ज़लों और कविताओं से मेरा वास्ता जुड़ गया था।)
दोस्तों! आसान नहीं है कुछ लिखना। आसान नहीं है अल्फ़ाज़ों को बुनकर ग़ज़लों या कविताओं का महल खड़ा करना। इनसे दोस्ती करनी पड़ती है। इश्क़ करना पड़ता है इनसे तब ग़ज़लें दिल में उतरती हैं और ज़ुबाँ पर आती हैं।
3-4 दिनों के बाद आज थोड़ी फुर्सत में बैठा तो सोचा एक ग़ज़ल लिखूँ, लेकिन नहीं लिख पा रहा हूँ। शायद मेरी ग़ज़लें मुझसे खफ़ा हो गई हैं।
हक़ीक़त है यह कि वो आज यूँ ही नहीं बेवफ़ा हो गई हैं,
मेरी ख़ता है इसलिए मेरी ग़ज़लें मुझसे खफ़ा हो गई हैं।
सच कहूँ तो, इन ग़ज़लों और कविताओं ने ही मुझे जीना सिखाया था। दुनिया का रंग भी इन ग़ज़लों ने ही दिखाया था। इश्क़ की मिठास इन ग़ज़लों ने ही चखाया था। आँखों।में आंसू पहली बार इन ग़ज़लों ने ही गिराया था। मुस्कुराना कैसे है, इन ग़ज़लों ने इसका सलीका बताया था। ज़िन्दगी को ज़िन्दगी कैसे बनानी है, इन ग़ज़लों ने ही पाठ पढ़ाया था। आँखों में बड़े-बड़े ख़्वाबों को इन ग़ज़लों ने ही सजाया था। और आज मेरी ग़ज़लें........!!!!!!
ख़ैर, मुन्नवर राणा ने अपनी एक ग़ज़ल के माध्यम से ठीक ही कहा था कि "ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर, कलम किस पर उठाना था कलम किस पर उठाते हैं"।
आपको बताऊँ, इन ग़ज़लों ने कई नए रिश्तों को जन्म दिया था और कई रिश्तों को तोड़ा भी था। मुझे याद है कुछ वर्षों पहले मैं दोस्तों के साथ बैठा था। सभी ग़ज़ल और कविताएं सुना रहे थे। सबने मुझसे कहा, तुम भी कुछ सुनाओ। उसी ग्रुप में मेरे एक अज़ीज़ दोस्त बैठे थे। उस समय परेशान अवस्था में चल रहे थे। मैंने एक ग़ज़ल सुनाया, और मेरे वो दोस्त बुरा मान गए। इसलिए वो ग़ज़ल उनकी ज़िन्दगी के हक़ीक़त को बयां कर रही थी और उन्हें लगा मैंने अपनी ग़ज़ल से उनको चोट पहुंचाया है। इसलिए हमारा रिश्ता टूट गया।
आप सोच सकते हैं कि अगर किसी के दिल से मेरी ग़ज़लों के अल्फ़ाज़ जा कर टकरा जाते थें तो कितना दम होता होगा मेरी ग़ज़लों में।
लेकिन अब लिखना छोड़ दिया हूँ। अब शायरी भी नहीं लिखता। बस ब्लॉग पर दिल आता है, समय मिलता है तो।कुछ लिख लेता हूँ।
चलते-चलते कुछ पंक्तियाँ आ गईं। आप सभी के लिए है दोस्तों। जो मुझसे मोहब्बत करते हैं।
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अब जब भी आऊंगा नई पहचान लेकर आऊंगा
दिल में खुशियां चेहरे पर मुस्कान लेकर आऊंगा।
आऊंगा एक दिन ज़िन्दगी का नया फ़साना लेकर
और ख़्वाहिशों की नई उड़ान लेकर आऊंगा।
कभी ज़रूरत हो मेरी तो धीरे से सदा देना यारों
अपनी हथेली पर अपनी जान लेकर आऊंगा।
मिलते हैं अगले सफ़र में दोस्तों! भले ही ग़ज़लों और कविताओं का दौर ना ज़ारी रहे, पर "Silsila Zindagi Ka" हमेशा ज़ारी रहेगा। अब तो आपको भी यकीं हो गया होगा My First Love/ग़ज़ल ही मेरी पहली महबूबा थी।
कविताओं और ग़ज़लों की यादों के साथ, आपकी यादों को संजोए आपको यहीं छोड़े जाता हूँ। ज़ल्द ही मुलाक़ात होगी। इसी उम्मीद के साथ Bye, Bye!!
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