मैं मुसाफ़िर हूँ अज़नबी गलियों का उन गलियों से गुज़रता हूँ किसी अज़नबी की तरह। अच्छा लगता है यह देखकर मुझे उन अज़नबी गलियों में सभी मे...
मैं मुसाफ़िर हूँ अज़नबी गलियों का
उन गलियों से गुज़रता हूँ
किसी अज़नबी की तरह।
अच्छा लगता है यह देखकर मुझे
उन अज़नबी गलियों में
सभी मेरे लिए अज़नबी हैं।
ना कोई अपना, ना कोई पराया
सभी मेरे लिए अज़नबी हैं।
कुछ मायूस सा चेहरा देखता हूँ
कुछ मुस्कुराते लबों को देखता हूँ
कुछ देखता हूँ रंग-बिरंगे आशियाँ को
कुछ देखता हूँ फीके पड़ चुके मकाँ को
कुछ बचपन को देखता हूँ लड़ते-झगड़ते
कुछ बुढ़ापे को देखता हूँ खिड़की से झांकते
उन गलियों में जब लगा हुआ जाम देखता हूँ
हंगामा होते आँखों से सरेआम देखता हूँ
सब कुछ देखते हुए मैं ख़ामोश गुज़र जाता हूँ
किसी अज़नबी की तरह। "क्योंकि"
मैं मुसाफ़िर हूँ अज़नबी गलियों का।