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पान की पिक और ऑफिस की दीवार- नलिन सौरभ

आज मेरी सोच का विषय कुछ अजीब है 
ये विषय है मेरे ऑफिस की दीवार जो बड़ी बदनसीब है.
एक तो सरकार पुताई के चूने में भी मिलावट करती है 
दुसरे, ये दीवार पान और गुटखे की मार भी सहती है.
गल्ली के नुक्कड़ और पान की दुकान पे लोग सुखिया पान चबाते हैं 
और कितनी हुई लाल ये,बेचारी दीवार पर आजमाते हैं.
सरकार की चूने की पुताई तो वैसे भी कमज़ोर थी
और बनारस वाले भैया की पान की रंगत में कमर तोड़ थी. 
अब इसके रंग के आगे सरकारी चूने की रंगत कब तक टिकती?
गर टिक जाती तो बनारसी भैया की पान एक भी न बिकती. 
और वो साहब भी क्या खूब हैं जो पान चबाते हैं
कहीं से भी आयें पिक तो यहीं चिपकाते हैं.
घर की दीवार पे तो ज़नाब प्लास्टिक पेंट  लगवाते हैं 
और सारी भड़ास बेचारी ऑफिस की दीवार पर फरमाते हैं.
कभी इस दीवार पर लिखा था "यहाँ न थूकें"
"न" को तो चबा गयी पान की पिक बच गया "यहाँ थूकें".
किसी महान आत्मा ने उस जगह भगवान की एक तस्वीर लगा दी 
महाशय ने तस्वीर को किया नमन और नीचे पिक की सिन्दूर चिपका दी.
मुझे तो इन सबों की अक्ल पे बहुत गुसा आता है
पर मेरे गुस्से से भी इस दीवार का नसीब कहाँ  बदल पाता है?
जी तो करता है कि सारी नियमावली उन्हें पढ़ दूं 
गालों पे उनके दो थप्पड़ मैं जड़ दूं.
ये ऑफिस की दीवार हमारे लिए न किसी मंदिर से कम है
कई जिंदगियां चलाती हैं ये, इनमें इतना दम है.
मैं तो इतना कहूंगा कि 
भ्रष्टाचार से भरे इस सरकार में इस दीवार की तकलीफों को न बढ़ाओ 
ऐ दोस्त! तुम पान तो खाओ पर उसका असर किसी पिकदानी पर ही अपनाओ 

"लेखक- नलिन सौरभ"

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